अब जबकि समाप्त हो रहा हूं मैं
मेरा जिस्म
मैं, इस वक्त भी उन्हीं के साथ हूं
यह पहाड़ी की ऊँची बुलंदियां
और नीचे फैली घाटियों का विस्तार
इससे आगे भी
जहां जमीन और आसमान मिलते हैं
वे मेरे अपने लोग
जीवन और मौत के बीच
इस छोटे से ठहराव में
मैं हरवक्त हरकत में रहा हूं
खौरियाये बैल की तरह
या बहते झरने की मानिंद
मैंने जीने के लिए हाथ उठाया
और वह झटक दिया गया
मैंने स्वप्न देखे
और चटाई की तरह
अपनों के बीच बिछा
उठाकर फेंक दिया गया
अंधेरी व भयावह सुरंग में
रोशनी!
मैंने वहां भी रोशनी तलाश की
भीड़ में खड़े आखिरी आदमी से पूछो
मिट्टी में लोटते इन बच्चों से पूछो
उस पल
जब औरत बाजार बनती है
रोशनी!
रोशनी की दरकार कितनी जरूरी है
सूरज के उगने की तरह
अब मैं मार दिया जाऊंगा
उन्हीं के नाम पर
जिनके लिए संसार देखा है मैंने
– उमेश डोभाल
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