top of page
Writer's pictureUmesh Dobhal

कितनी तृष्णा थी

सावन में बरसते बादल

एकाकार हैं सब

न रूप में न रंग में

धुंधलके का अहसास

धरती और आकाश के

मिलन का प्रकम्पन

प्रकाशित है वातावरण

ओह, कितनी तृष्णा थी

बरसता जा रहा है बादल

भय जनित संकुचन नहीं है

पर आगामी विरह व्यथा का सूचक

आह्वान किया लट बिखराई

रौद्र रूप सह लूंगी तेरा

पर आनन्द की सीमाओं का क्यों अतिक्रमण।

– उमेश डोभाल

1 view0 comments

Recent Posts

See All

घर लौटने का समय

पहाड़ियों की चोटियों पर तना वर्षा के बाद का खुला-खुला सा आसमान कहीं तैरते उड़े-उड़े से बादल और पहाड़ी पगडंडी का अकेला सफर लम्बी गर्मियों...

सावधान !

जब वे आते हैं और कहते हैं हम खुशियां लायेंगे तुम्हारी थकी हुई और उदास जिन्दगियों में वे झूठ बोलते होते हैं उनकी भाषा की नरमी में एक...

कल रात नींद नहीं आयी

कल रात भर नींद नहीं आई कल रात भर करवटें बदलता रहा कल रात कुछ अजीब थी कल रात भर प्यास सताती रही आसपास कोई नहीं था इतनी सी बात थी और कल...

Comments


bottom of page