उसका बचपन
मां के संग खेतों में बीता
अपनी उम्र और शरीर से ज्यादा काम करते हुए
उसके खेल डंगर, दरान्ती, मिट्टी और घास के गट्ठर थे
इन्हीं के बीच वह बड़ी हुई
कुछ घण्टे छोड़कर चौबीसों घण्टे
उसे काम में खपते देखकर
सभी ने जिसमें उसके पिता भी थे
उसे एक अच्छी लड़की बताया
यह वो उम्र थी
जब काम के बीच
उसकी ठिठकती आंखों में
सपने उगने लगे थे
मां की नजरों में वह तेजी से बढ़ रही थी
ये दिन उसकी हंसी पर लगाम लगाने के थे
मां ने पति को उलाहने दिये
और बेटी के जवान सपनों के बारे में बताया
बेटी दुल्हन बनी
और पहुंच गई पिया के घर
यहां काम भी था
मायके जैसी स्वतन्त्रता भी नहीं
यहां भेदती नजरें थी
सास की और सास जैसी पिंजर हो चुकी औरतों की
इनकी दुनिया अब भी
बडा खेत मिट्टी घास और बीहड़ ढलाने थीं
औरतें अपने आप से खुश थीं और नाखश भी
खुश थीं
उनके परदेस गये जवान बेटे
उनके सपनों को साकार करेंगे
सपने जिनके बारे में किसी को पता नहीं था
अब वह मां है जैसे उसकी मां थी
अपनी बेटियों को अच्छी लड़की बनाने में जुटी हुई
उसके सपने (?) उसके बेटे थे
अब वह टूटा हुआ शरीर है
सहज होकर झेलती है इसे वह
गांव में या आस-पास कहीं
कोई भी औरत ऐसी हो
जिसका शरीर हड़ियों का सख्त ढांचा न हुआ हो
तो असहज होने की बात भी है
अब वह बिस्तर पर है।
बिस्तर क्या है
घर भर में मौजूद
सबके गैर जरूरी चीथड़े हैं
एक कोने में इन्हीं पर वह लेटी है
और कराह रही है
तमाम उम्र गुजर गई
वह नहीं जान पाई उसके सपने क्या हैं
उसका निर्जीव शरीर चिता पर है
चिता को घेरे हुए गांव है,
मर्द हैं मर्द बतिया रहे हैं
बहुत भली थी बेचारी
और भी बहुत कुछ कह रहे हैं
लोग वही सब जो प्रत्येक बार
शमशान में कहा जाता है
वहां ऐसा कोई नहीं है
क्यों नहीं है ऐसा कोई
जो कहे जोर देकर
राख होते शरीर को
सहानुभूति की जरुरत नहीं है
जरुरत जिन्दा औरतों को
उनके सपने बताने की है।
– उमेश डोभाल
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